Wednesday 9 July 2014

जीवबंध

जन्मबंध - कर्मबंध - भावबंध - प्रारब्धबंध 


                          प्रत्येक जीव का जन्म  और  मृत्यु  स्वतंत्र  है , ऐसा  ही सुनते आ रहे है   ,  हर  जीव का अपना  कार्मिक घेरा होता है  जो जीव  की  यात्रा   की दिशा  और मोक्ष  के   रूप  और  समय  को पूर्व सुनिश्चित   करता  है।  तदनुसार   व्यक्ति  का  जन्म  और  परिवार   का  निर्धारण  भी पूर्व  सुनियोजित  ही है।  इस सिद्धांत  माने  तो पुनर्जन्म को भी  मानना  होगा।  पुनरजन्म को माने तो  कई कई जन्मो  को  तर्क पे  लाना होगा।  तो ये  भी मानना    होगा की  जीव रूप ऊर्जा  कही   घेरों  के फेरों में  उलझी  है।  तभी तो बार बार जन्म हो  रहा है।


                       तो  ये  भी  मानना  होगा  की  जीव अपना  अपना भाग्य लेके  जन्म लेता है  अपनी गति  होती है , और अपने अपने कर्मो का फल  स्वयं ही भोगना पड़ता है।  और इस तरीके से प्रत्येक जीव  अपने केंद्र  की  अपनी  धुरी की  परिक्रमा कर रहा  है।   तो  फिर  परिवार  का क्या मतलब ?  क्या कोई सम्बन्ध  है  जीव के साथ ? तो क्या  जीव  की यात्रा  अकेले की नहीं ?  क्या उसका प्रारब्ध  और  उत्तरदायित्व सामूहिक  परिवार से बंधा है ?  कई प्रश्न   मस्तिष्क में जन्म लेते है  , और उत्तर  उलझते  ही  जाते है।  या फिर जन्म मात्र संयोग है।  कोई पूर्व सुनियोजित   आधार नहीं ,  सिर्फ  एक  गर्भ  प्राकृतिक  संरचनावश   ऊर्जा  को  धारण करता है और प्राकृतिक नियमानुसार कार्य प्रकट हो जाता है ;  यही सत्य है  ?,  तो  क्या  योनि   और   जाति  (  मानव निर्मित स्त्री पुरुष  हिंदू  शूद्र  मुस्लिम सिख आदि नहीं , विधाता निर्मित  बीज रूप जाति किस जीव  के गर्भ से जन्म लेना है ) निर्धारण का  कोई  अर्थ नहीं ?  और  न ही  धर्म परिवार  आदि  पूर्व  नियोजित है।


                      कुछ  प्रश्न   ऐसे  है  जिनका  उत्तर  मात्र  आस्था  है  और  छठी  इन्द्रिय  का  संकेत है  जिसपे भरोसा  करना  हो तो किया जा सकता  है। मौलिक रूप से  बहुत ही  मोटे तौर  पे सब को  ही पता है  जो मैं दोबारा कह रही  हूँ की  मूल रूप से  प्रकृति और ऊर्जा का उचित  परिस्थति  में संयोग / मिलन  ही एक जीवन को प्रकट करता है , ऊर्जा  तत्व में वास करके ही  प्रकट होती है ,    सबसे   पहले  समझते है  की परिवार  के बंध और एक  जीव  की निजी  स्वतंत्रता क्या है ?   एक परिवार   जन्म  लिए  अलग अलग जीव  और उनके भाग्य फल  उनकी दिशा बतलाते है , की  बेशक  उन्होंने  एक परिवार में जनम  लिया  है  , परन्तु  उनके जीवन की यात्रा  और अंत अलग अलग है। हर  जीव  की अपनी निजी परिधि है , एक पारिवारिक  परिधि है , एक देश  , एक समाज की परिधि है और बृहत्  रूप में समझे तो  एक गृह और नक्षत्र  , और सूर्यमण्डल  की परिधि है।

                    तो  परिवार    का क्या अर्थ ? परिवार में साथ जन्म लेने का मात्र एक ही अर्थ समझ आता है  वो है  कार्मिक  सम्बन्ध  और   सह कार्मिक  सम्बन्ध  के भोग।  इस के अनुसार   सम्पूर्ण परिवार पूर्ण रूप से उत्तरदायी है ,  परिवार के सुख और  दुःख  का  और संकट हो या उत्सव  सामान रूप  से  हर  जीव  उस भोग के लिए सयुंक्त रूप से  तैयार है ।  पर निजी  यात्रा   में कोई बदलाव नहीं।


                    भाग्य बंध क्या है ?    भाग्य  से  जनित    कर्म की प्रेरणा    और फल ,  इनका  चक्र  बनता है जीव  के जनम से  कुछ  परिवार  से  वंशानुगत  परंपरा के बहाव से  और कुछ  स्वयं के पूर्व  संचित  भाग्य  से जिसको प्रारब्ध भी  कहते  है।  पूर्व संचित भाग्य  हाँ , ये सही  नाम है  पर बड़ा है  इसलिए  प्रारब्ध  ही सही है , तो ;   प्रारब्ध  उस परंपरा का नाम  है जिसको जीव  गठरी के रूप में  अपने सर पे उठाये  तब तक चलता है जब तक काल चक्र  का चक्का घूमता  है।  और प्रारब्ध  वो भी है  जो  कर्म और भाग्य  के बाद  अपना  प्रभाव व्यक्ति के जीवन  और मार्ग पे डालता है।  



                       दूसरी तरफ  आईये  सारे प्रश्नो  और उत्तर से  स्वयं को आज़ाद करे !  जरा सोचिये  !  एक असभ्य  अविकसित  मानव समाज भी था  , जहाँ  आज जैसा  ज्ञान भाषा  नहीं थी , विज्ञानं भी नहीं था , तब भी    आकाश  पे तारामंडल था  , खगोलीय  घेरे   थे  , सूरज और चाँद  यूँ  ही  निकलते  थे।   जीवन  था  , प्रेम  था  , द्वश  लोभ की   भावना  भी थी  ,संक्षेप में  मानवीय गुण तब भी थे बुद्धि भी थी  और समस्त विषय राग द्वेष अप्रकट रूप में थे ।  
                     आईये ! फिर से उसी जीरो पे आ जाये   और जो जो आभास होता है पूर्ण रूप से उसी को  ले के चलते है , इस आभास की असंभावना अथवा विडंबना सिर्फ एक , की हमें कुछ पता नहीं।  एक ही बात ज्ञात है  की हमारा  जन्म हुआ , कोई जीवन मिला , जिसमे बहुत रंग है , हमारा  काम  सिर्फ जीना है वो भी  हमें नहीं करना , आती जाती  अनवरत साँसे  हमारे लिए ये कार्य कर रही है , ऊर्जा को कब कैसे शरीर को ग्रहण करना है  ये कार्य  शरीर का है वो कर रहा है। हमारे अधिकार में ले दे के   छ  इन्द्रिय है जिनको अनुशासित करना है , स्वस्थ रखना है , और इस प्राप्त शरीर में मिले हुए जीवन काल के उजले पक्ष को  जीना है  फिर पहिया घूम के  कृष्ण पक्ष को चला जायेगा , बिलकुल चन्द्रमा की कला के सामान , पंद्रह दिन का उजला पक्ष और पंद्रह दिन  का कृष्ण पक्ष।   महीने का ये रूप  और जीवन का ये चक्र  हमारे सामने ही है  और घूम रहा है , विश्वास योग्य है।   इसी प्रकार ऋतुओं  को लेले , महीने को एक जीवन का घेरा  जाने  तो ऐसे बारह महीनो में ऋतुएँ घूमती है  अपना एक चक्कर पूरा करती है इसको  अपने जीवन की उपलब्धि और अनुपलब्धि के सन्दर्भ में  देखा जा सकता है , इन ऋतुओ का भी विशेष प्रयोजन नहीं है , ये भी  कही समय और प्रकृति से बंधे है।  कहीं  धरती के  लिए कोई कर्म और कर्म का फल आड़े नहीं  आ रहा।  प्रयोजन से भी जयादा  प्रकर्ति  नियमित है।  

                      ठीक  इसी प्रकार आपके भी घूमते जीवन  चक्र में  कहीं   कोई  कर्म फल जैसा  व्यवधान नहीं , सिर्फ ऋतुएँ है  जो नक्षत्रो से प्रभावित है , और ये नक्षत्र  आपके जन्म के समय  पे ही  आपके जीवन का पूरा  एक्स रे  कर लेते है।  जो आपमें व्यवहार रूप में , मानसिक भावनात्मक  और शरीर के  सुख और दुःख के रूप में  अपना प्रभाव पुरे जीवन भर देते रहते है।
  
                       अब देखिये  इस विचार के साथ साथ  चलते है जो ज्यादा  सुलझा हुआ है  इसके द्वारा गुथी सुलझाना  आसान  होगा , जहाँ बढ़ा  काम आती है  वहां उलझाव की  भूमिका भी काम होती जाती  है , रस्ते के फल  बताते है  की मार्ग चयन  सही है !

                        मनुष्य  को मोटे तौर पे  ७० %  यही पे इसी संसार में  यही  गर्भ से  विभिन गुण दोष के रूप में  प्राप्त है , जो यही रह जाना है।जो  साथ लाये  नहीं  वो  साथ जा ही नहीं सकते , साथ वो ही  जा  सकता है  जो साथ आया था।  बाकि समस्त माया जाल यही का  इसी संसार का बनाया हुआ।  उदाहरण  के लिए  , नाम शोहरत , रुपिया  पैसा , जायदात   तो है ही इंनके साथ ,  सम्बन्ध  , संबध  जनित  फल  , सद्विचार सुकर्म , भाग्य जनित फलित समस्त  सुख दुःख , संताप  रुग्णावस्था और वैषयिक   ज्ञान आदि भी यही के है  और यही इसी  देह के साथ रह जाने है , कोई भी आपके साथ नहीं जाने वाला। 

                       तभी आप देखते है  की निश्चित  ज्ञान  , औए उपलब्धि  निश्चित देह के साथ  चिपक जाती है।  इनका इत्र रूप में  संगठित हुआ  मात्र १ %  ही प्रारब्ध तक जा पता है।  बुद्ध के साथ  बुद्ध का आत्मज्ञान  ,  आइंस्टीन के साथ  आइंस्टीन  की  बुद्धि  , रवीन्द्रनाथ टैगोर  के साथ उनकी विद्वता  और पराक्रम  चिपक गया।  पर समझने योग्य है  यही का यही उनके साथ  ये सब कुछ भी नहीं जा सकता  क्यूंकि इनका होना  इनके द्वारा  उपलब्धि  का पाया जाना  , शोहरत  होना , सब  सांसारिक माया के ही अंतर्गत  है ।   

                         माया को काटने के लिए , माया के इस तंत्र  को जानना  बहुत आवश्यक है ! 


कल्पना कीजिये  , क्यूंकि उचित  कल्पना ही आपको   सार तक पहुंचाएगी , ऐसी कल्पना जहाँ  गर्भ का चयन पचास प्रतिशत आपके  संचित कर्म करेंगे  और पचास प्रतिशत  केंद्र द्वारा  आपको आज्ञा की जाएगी।  ये वो ही दिव्या गणित है  जिसका अपना गुना भाग है और जिसका सांसारिक न तो प्रमाण है न ही आधार ,  जिसमे जो ५० %  है  वो आपके द्वारा  सद्कर्म आपके द्वारा  आत्मिक उत्थान  के लिए किये गए प्रयास  निहित है जो आपकी जीवन यात्रा को  सुनिश्चित  और पूर्व निश्चित करते है , ध्यान दीजियेगा !  यहाँ सही और गलत अच्छा और बुरा  की चर्चा नहीं , यहाँ प्रारब्धिक बहाव , कर्म और भाग्य के संयोग  की चर्चा  और  आधार पे बात चल रही है , शायद ये प्रयास कई उलझनों और अटकाव को सुलझा सके। 

तीन बाते  ध्यान में रखनी है -

आईये अब इस गोल गोल घूमते  गोल जीवन-घेरे  में प्रवेश करते है  गर्भ से / उजले पक्ष से , जहाँ ऊर्जा अपने को ५ तत्व के साथ मेल करके प्रकट करती है , यहाँ इस गुथी  को समझने के लिए काफी कुछ विज्ञानं भी साथ दे रहा है।  

१-  आप (जीव ) द्वारा  गर्भ का चयन - ये आपके जीवन के प्रवाह को सुनिश्चित करता है , माता के स्वस्थ्य के अनुसार आपके  ५ तत्व का स्वास्थय  निर्धारित करता है  पिता के स्वस्थ्य  और वंशानुगत  बिमारियों और स्वभाव  को वहां करने वाला  वाहक आपका शरीर बनता है।  यहाँ आपने देखा  आप द्वारा चयनित  गर्भ ने आपके जीवन भर के स्वाभाव  को  धारण किया ,  आपने आपके प्रेरक मन बुद्धि  को धारण किया , और आपने एक और  चयन किया  वो है  वंशानुगत  शरीर के  रक्त कणो  में बहने वाली  अनुवांशिक  बिमारियों को।  

ये गुण   एक बार फिर से  एक बार दोहराते है , क्यूंकि ये आपके साथ  जन्म से लेकर मृत्यु तक चलेंगे  , 

१- आपका शरीर (रंग,  रूप , यंत्र )
२ - स्वभाव  
३- मन बुद्धि  
४- अनुवांशिक बीमारी। 

और ये सब अनजाने में  सुनियोजित  अथवा  बिना किसी नियोजन के आप  चयन कर चुके है।  अब आपको मिला क्या।  जन्म के साथ  ही  आपको रक्त सम्बन्ध मिले। समृद्धि  या दरिद्रता  आध्यात्मिक अर्थ में  रूपये से नहीं तरंगो से गिनी जाती है जिनको संस्कार  भी कहा जाता है ।  तो ये भी आपको मिल चुका है।  यानि के प्रेरक अपने दायित्व को निभाने के लिए पूर्ण रूप से तैयार है ,  स्वभाव  तैयार है  जो मुख्य रूप से आपके  भाग्य को  भी ५० %  धक्का देता है ( और प्रारब्ध की खिचड़ी भी साथ साथ  पक ही रही है )

२-  धक्का दिए  गए    भाग्य  और जन्म से मिली प्रेरणाएँ  आपके  स्वाभाविक रुझान को तय करती है , किस को कुछ बनना पसंद है तो किसी को कुछ , ये सब जन्म से ही  इसी प्रकार निर्धारित है।  तो  ध्यान देने वाली बात है  की  जीव  यहाँ  अपने  प्रारब्ध को दोबारा  संग्रह कर रहा है  अपने इस उजले  प्रकट काल में काल में। पर  जो बंधन है  वो तात्विक  और अनुवांशिक  है  वो भी साथ साथ है , और ये  समझना कठिन नहीं यदि आप ध्यान से  विचार करें  तो आप  स्वयं ही जान जाएंगे , यद्यपि अंत में जब कुछ पल्ले नहीं पड़ता  तो  सब कुछ भाग्य के  और प्रारब्ब्ध पे दोष डाला जाता है  पर   काफी कुछ   इस जीवन के  एक्स रे  में जन्म के समय ही चिन्हित  है जिसका  भाग्य  और  प्रारब्ध से कोई लेना देना ही नहीं।  सब वैज्ञानिक बुद्धि से समझ आने वाली बात है।  

३- प्रेरणा  अनुसार  कर्म को धक्का मिला , बुद्धि गत  मौलिक  स्वभाव  ने  अमल  किया  कार्यवाही की  सिर्फ प्रेरणा पे नहीं , प्रेरणा तो आपके अंदर से आई है , पर इस संसार में जितना अंदर से बहार जाता  है उससे कहीं ज्यादा  बाहर  से अंदर आता है , इनको सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के रूप में जाना जाता है।  ये भी अपना  मौलिक स्वभाव और प्रभाव रखती है।  इनसे  ही  मूल   आंदोलन  और  और तदनुसार  उनपे  दोबारा आंदोलन को   एक श्रृंखला मिल जाती है।  और ये श्रृंखलाएँ  पुरे जीवन पे जलकुंभी के समान   छा जाती है और जल  इनके अंदर  छुप जाता है न. साधारण मन और बुद्धि से  सारी  उम्र  जीव  भाग्य और प्रारब्ध में उलझा रहता है , वास्तव में देखे तो    प्रारब्ध और भाग्य  का प्रभाव यहाँ है ही नहीं।   प्रारब्ध उसका कार्य सिर्फ जन्म के समय  एक्स रे  लेना है , और भाग्य  कर्म और प्रारब्ध  से बंधा है।  कर्म आपके  जन्म से मिले गुणों और प्रेरणाओं  से बंधे है।  और  महत्वपूर्ण बात ये है इस पुरे चक्र में  की आप अपने जीवन के उद्देश्या  पे यदि ध्यान देंगे  तो पाएंगे , आप अपने इस उजले  प्रकट  जीवन काल में  प्रारब्ध के जाल को काटने आये है ,  जो कृष्ण पक्ष में संभव नहीं।  और वो  इन तमाम  अर्जित  गुणों के साथ  आपके प्रयास पे निर्भर करता है।  की प्रारब्ध में आप क्या संचित कर रहे है।  

क्या कहा !  

क्या मिलेगा, ज्ञानी बनके। …………  जान के। ............. समझ के। ………… कर के। ……  ?  जीवन ऐसे ही अच्छा है ! 




अरे भाई  ! वजन से भरी  गठरी  जो पीठ पे लदी  है , उसको फेंक के  क्या मिलता है

जी हाँ , सुकून  शांति सहजता  प्रेम   और जीवन जीने की कला

और क्या चाहिए ? 




लीजिये , जीव के  इस कार्मिक घेरे को समझने के बाद  दोबारा हम वही आते है  उसी बिंदु पे  जहा से चर्चा शुरू की थी ,  ये तो एक जीव के कर्म घेरे  है , तो परिवार , देश  और समाज  का निर्धारण  कैसे होता है , या मानव को मानव ही रहना है  इसका निर्धारण कैसे होता है ?  कैसे जीव निर्धारित कर पाता है की कहा और कौन सा गर्भ  उचित है !  मित्रों !  अपनी अल्प बुद्धि से  जो मुझे लगता है  वो मैं आपसे बांटती  हूँ , आगे आपको जो सही लगे वो आप सोचे ! मुझे लगता है  मेरा ज्ञान और  विश्लेषण  कुछ  विज्ञान  और कुछ  अध्यात्म के अनुभव पे निर्भर करता है ,  वास्तव में ये बृह्माण्ड , ये धरती , ये नक्षत्र  सब की अपनी धुरी है  अपनी गति है। इसी प्रकार  हर कण की अपनी धुरी है अपनी गति है।  , तो जब  कण कण का  घेरे  और गति है   समाज और देश  इनसे कैसे अलग हो सकते है , इनकी अपनी ऊर्जा  सम्बन्ध  और भाग्य  कर्म तथा प्रारब्ध है।


और  यकीं कर सकते है ,की परम केंद्र को  इन सब छोटी छोटी कार्यवाहियों से कोई लेना देना नहीं , इनका प्रवाह  कार्मिक , भाग्य और प्रारब्ध के घेरों में होता है।  बिलकुल आपके  जीवन घेरे  के समान।  इनका भी महीना  है , कृष्ण पक्ष  यानी सुप्त काल  और उजला पक्ष  यानि की  प्रकट काल , उजले पक्ष में ये अपना प्रारब्ध संचित करते है , बिलकुल आपके समान , इनके भी कर्मो की गठरी है।  इनका भी चक्र है , और तोड़ भी वो ही है , कर्मो की संचित गठरी के साथ  ,उचित  प्रारब्ध  को संचित करना।  संभव है ! पर  कठनाई एक ही है जैसे  आपके तंत्र  आपकी आज्ञा नहीं मानते , उसी का विस्तार है  यहाँ।  यहाँ भी  कोई किसी का  आदर नहीं करता , कोई किसी को सम्मान नहीं देता।  



पर आप तो जानते है न ! की इस शरीर  को कैसे प्रेम करे , इस ऊर्जा  का सम्मान  कैसे  हो , कैसे आपका शरीर आपका सहयोगी बने।  एक छोटे से बिंदु  को मिलाना आसान है  और वो सूक्ष्तम्  बिंदु  आप स्वयं है आपका अपना केंद्र है।  यही से शुरुआत कीजिये।  यात्रा  सारी  अंदर की ही तरफ है।  अंदर  केंद्र में  स्थिर  हो के  ही , इस जल को  बहार  को उचित  निकास मिलगा।  



आप  तो जानते है ना !! 

शुभकामनाये 

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